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पांचवां सूक्त
ॠ. 5 66
आत्मसाम्राज्यके प्रदाता
[ ऋषि वरुण और मित्रका आवाहन करता है,-वरुण जो सत्यका विशाल रूप है, मित्र जो प्रिय है और सत्यके सामंजस्यों तथा बृहत् आनंदका देवता है । वे हमारे लिए सच्ची और अनंत सत्ताकी पूर्ण शक्तिको जीतते हैं, ताकि हमारी अपूर्ण मानवीय प्रकृतिको अपनी दिव्य क्रियाओंकी प्रतिमामें रूपांतरित् कर सकें । तब सत्यका सौर द्युलोक हममें प्रकट होता है, उसके प्रकाशके गोयूथोंकी विशाल चरागाह हमारे रथोंकी यात्राका क्षेत्र बन जाती है, द्रष्टाओंके उच्च विचार, उनका विशुद्ध विवेक, उनकी शीघ्रगामी प्रेरणाएँ हमारी हो जाती हैं, हमारी अपनी भूमि तक उस विशाल सत्यका लोक बन जाती है । क्योंकि तब वहाँ एक पूर्ण गति होती है, पाप-तापके इस अंधकार-का अतिक्रमण हो जाता है । हम आत्मसाम्राज्य प्राप्त कर लेते हैं जो हमारी अनंत सत्ताकी समृद्ध, पूर्ण और विशा।ल उपलब्धि हे । ] १ आ चिकितान सुक्रतू देवौ मर्त रिशादसा । वरुणाय ऋतपेशसे दधीत प्रयसे महे ।।
(चिकितान मर्त्त) हे ज्ञानके प्रति जागृत मर्त्य ! तू (देवौ आ) उन देवोंका अपने प्रति आवाहन कर जो (सुक्रतू) संकल्पमें पूर्ण हैं और (रिशा- दसा) तेरे शत्रुओंके विध्वंसक हैं । (वरुणाय) उस वरुणके प्रति (दघीत) अपने विचारोंको प्रेरित कर जिसका (ऋतपेशसे) स्वरूप सत्य ही है और (महे प्रयसे [ दधीत ] ) परम आनंद1की ओर अपने विचार प्रेरित कर । ________________ 1. मित्रद्वारा प्रदत्त वह तृप्ति जो सत्य-स्तरके विशाल आनंदका आधार स्थापित करती है । अनंतताका देवता वरुण सत्यका विशाल रूप प्रदान करता है और सामंजस्योंका देवता मित्र सत्यकी शक्तियोंका पूर्ण आनद, उसका पूर्ण सग्मर्थ्य । १९६
आत्मसाआज्यके प्रदाता
२ ता हि क्षत्रमविह्रतुं सभ्यगसुर्यमाशाते । अध व्रतेव मानुषं स्वर्ण धायि दर्शतम् ।।
(हि) क्योंकि (ता) वे ही (अविह्रतम् असुर्यं क्षत्रं) अविकृत बल और पूर्ण सामर्थ्यको (सम्यक् आशाते) अच्छी तरह प्राप्त करते हैं । (अध) और तब (मानुषं) तेरी मानव सत्ता ऐसी हो जाएगी मानो (व्रता-इव) इन देवोंकी क्रियाएँ हों, (दर्शतं स्व:1 न धायि) मानो प्रकाशका दर्शनीय द्युलोक तेरे अंदर स्थापित हो गया हो । ३ ता वामेषे रथानामुर्वी गव्यूतिमेषाम् । रातहव्यस्य सुष्टुतिं दधृक् स्तोमैर्मनामहे ।।
इसलिये, हे मित्रावरुण, (ता वाम् एषे) उन प्रसिद्ध तुम दोनोंकी मैं कामना करता हूँ । (एषां रथानाम्) इन रथोंके दौड़नेके लिए मैं (उर्वी गव्यूतिम् एषे) तुम्हारी गोयूथोंकी विस्तृत चरागाह चाहता हूँ । (रात-हव्यस्य) जब देव हमारी मुक्त छतोंसे प्रदत्त भेंटोंको ग्रहण करता है तब (स्तोमै: सुष्टुतिं दधृक् मनामहे) हमारे मन अपने स्तोत्रोंके द्वारा उसकी पूर्ण स्तुतिको प्रबल रूपसे धारण कर लेते हैं । ४ अषा हि काव्या युवं दक्षस्य पूर्भिरद्भुता । नि केतुना जनानां चिकेथे पूतदक्षसा ।।
(अध्र हि) तब निश्चयसे, (अद्धुता) हे सर्वातीत देवो ! (युवं) तुम (दक्षस्य पूर्भि:) प्रकाशयुक्त विवेकके पूर्ण प्रवाहोंको लाकर (काव्या) द्रष्टा- की प्रज्ञाओंको अधिगत करते हो । (पूतदक्षसा केतुना) परिपूत विवेकवाले अनुभवके द्वारा (जनानाम्) इन मानवीय जीवोंके लिये तुम (निचिकेथे) ज्ञानको प्रत्यक्ष करते हो । ५ तदृतं पृथिवि बृहच्छूवएष ऋषीणाम् । न्रयसानावरं पृथ्वति क्षरन्ति यामभि: ।। _____________ ।. अथवा ''दृष्टिशक्ति-संपन्न स्वर्'', प्रकाशका लोक जहाँ सत्यका पूर्ण दर्शन विधमान है । १९७ (पृथिवि) हे विशाल पृथिवि, (ऋषीणां श्रव-एषे) ऋषियोंके अन्त:- प्रेरित ज्ञानकी गतिके लिये (बृहत्) बह विशालता ! (तत् ऋतम्) वह सत्य ! (पृथु अरं ज्रयसानौ) तुम दोनों विशालतासे, पूरी क्षमताके साथ गति करते हो । हमारे रथ (याममि:) अपनी यात्राओंमें (अति क्षरन्ति) धाराकी तरह गति करते हुए परे1 तक पहुंच जाते हैं । ६ आ यद् वामीयचक्षसा मित्र वयं च सूरय: । व्यचिष्ठे बहुपाप्ये यतेमहि स्वराज्ये ।।
(मित्र) हे मित्र, (यत् वाम्) जब तुम दोनों (ईय-चक्षसा) सुदूरगामी, समुद्रपारगामी दृष्टिसे संपन्न होते हो (च) और (वयं सूरय:) हम ज्ञान- प्रदीप्त द्रष्टा होते हैं, तब हम (स्वराज्ये आ यतेमहि) उस आत्मसाम्राज्यकी अपनी यात्राके प्रयासमें लक्ष्य तक पहुंच जायं, जो स्वराज्य2 (व्यचिष्ठे) विस्तारसे चारों ओर फैला हुआ है और (बहुपाय्ये) अपनी अनेकानेक सत्ताओं पर शासन करनेवाला है । ___________ 1. अंधकार और शत्रुओंसे तथा निम्न सत्ताके पाप-तापसे परे । 2. स्वराज्य, स्वाराज्य और साम्राज्य, अन्दर और बाहर पूर्ण साम्राज्य, अपनी आन्तरिक सत्ताका शासन और अपने वातावरण व परिस्थितियों पर प्रभत्व--यह था वैदिक ऋषियोंका अदर्श । यह केवल अपने मर्त्य मनसे परे अपनी सत्ताके प्रकाशपूर्ण सत्यकी ओर, अपने अस्तित्वके आध्यात्मिक स्तर पर विद्यमान अतिमानसिक अनंतताकी ओर अरोहण करनेसे ही प्राप्त हो सकता है । १९८
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